नजरिया
शाम को खाने के बाद घूमने निकला था — धीमी धीमी बारिश हो रही थी, चाँद बादल से आँख मिचौली खेल रहा था , एक सौ सैंतीस नंबर की बस जा रही थी — एक प्रेमी और प्रेमिका बिछड़ रहे थे मानो उँगलियों से रेत फिसल रही हो जैसे
और मैं चला जा रहा था अपने साथ अपनी परछाई को ढूंढते हुए — शब्द निकल पड़े और आँखों की नमी को गीली जमीं ने अपने आगोश में समेट लिया।
पहली पंक्ति चाँद के संघर्ष को समर्पित है — नश्वरता मनुष्य को एक बार में नहीं , अनेक बार मारती है। और हर मौत अपने साथ नयी जिंदगी ले के भी आती है , हो सकता है विरह देखा हो आपने , बिछड़े होंगे आप अपनी प्रेयषी से — उसके आगे भी जीवन है।
चाँद ऐसे भी दीखता है
पानी के बुलबुलों की तरह मचलती हुई ख्वाहिशें
छूने से दम तोड़ देंगी लगा था ऐसे
बूँद में कैद हुई कश्मकश
जब निकलती है जीवन की सीमाओं को तोड़ कर
और सफर तय करती है मृत्यु तक
संघर्ष ऐसे भी दीखता है !!
दूसरी पंक्ति हमारे जीवन में कारण ढूंढने की प्रवृति को दिखाती है , हमने अपने जीवन में जो देखा है वही हम देखते रहते हैं , असली कारण कुछ भी हो — हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं
आने की कोई वजह नहीं होती
प्यार से देख कर
नजर लगा कर
करीब आ कर
जब चला जाता है कोई
और सोच रहे होते हैं हम
क्या कमी थी — समर्पण, आलिंगन, चुम्बन और हाँथों में हाँथ
सब कुछ तो था
और तब तुम आये
आँखों में रखके आँख कह दिया तुमने
जाता हूँ शायद आ न सकूं , अगर थोड़ा और प्यार कर लिया तो शायद भुला न सकूं
वजह ऐसे भी दीखता है !!!